श्री महावीर चालीसा | Shree Mahavir Chalisa
शीश नवा अरिहन्त को, सिद्धन करूँ प्रणाम ।
उपाध्याय आचार्य का, ले सुखकारी नाम ।।१।।
सर्व साधु और सरस्वती, जिन मंदिर सुखकार ।
महावीर भगवान को, मन मंदिर में धर ।।२।।
जय महावीर दयालु स्वामी, वीर प्रभु तुम जग में नामी ।।३।।
वर्धमान है नाम तुम्हारा, लगे हृदय को प्यारा प्यारा ।।४।।
शांति छवि और मोहनी मूरत, शांत हँसीली सोहनी सूरत ।।५।।
तुमने वेष दिगम्बर धरा, कर्म शत्रु भी तुम से हारा ।।६।।
क्रोध मान और लोभ भगाया, माया-मोह तुमसे डर खाया ।।७।।
तू सर्वज्ञ सर्व का ज्ञाता, तुझको दुनिया से क्या नाता ।।८।।
तुझमें नहीं राग और द्वेष, वीतराग तू हितोपदेश ।।९।।
तेरा नाम जगत में सच्चा, जिसको जाने बच्चा-बच्चा ।।१०।।
भूत प्रेत तुम से भय खावें, व्यंतर-राक्षस सब भग जावें ।।११।।
महा व्याध मारी न सतावे, महा विकराल काल डर खावें ।।१२।।
काला नाग होय फन धारी, या हो शेर भयंकर भारी ।।१३।।
न हो कोर्इ बचाने वाला, स्वामी तुम्हीं करो प्रतिपाला ।।१४।।
अगनि दावानल सुलग रही हो, तेज हवा से भड़क रही हो ।।१५।।
नाम तुम्हारा सब दुख खोवे, आग एकदम ठण्डी होवे ।।१६।।
हिंसामय था जग विस्तारा, तब तुमने कीना निस्तारा ।।१७।।
जन्म लिया कुंडलपुर नगरी, हुर्इ सुखी तब प्रजा सगरी ।।१८।।
सिद्धारथ जी पिता तुम्हारे, त्रिशला के आँखों के तारे ।।१९।।
छोड़ सभी झंझट संसारी, स्वामी हुए बाल ब्रह्मचारी ।।२०।।
पंचम काल महा दुखदार्इ, चाँदनपुर महिमा दिखलार्इ ।।२१।।>
टीले में अतिशय दिखलाया, एक गाय का दूध गिराया ।।२२।।
सोच हुआ मन में ग्वाले के, पहुँचा एक फावड़ा लेके ।।२३।।
सारा टीला खोद गिराया, तब तुमने दर्शन दिखलाया ।।२४।।
जोधराज को दुख ने घेरा, उसने नाम जपा तब तेरा ।।२५।।
ठण्डा हुआ तोप का गोला, तब सबने जयकारा बोला ।।२६।।
मंत्री ने मंदिर बनवाया, राजा ने भी दरब लगाया ।।२७।।
बड़ी धर्मशाला बनवार्इ, तुमको लाने को ठहरार्इ ।।२८।।
तुमने तोड़ी बीसों गाड़ी, पहिया मसका नहीं अगाड़ी ।।२९।।
ग्वाले ने जो हाथ लगाया, फिर तो रथ चलता ही पाया ।।३०।।
पहिले दिन बैशाख बदी के, रथ जाता है तीर नदी के ।।३१।।
मीना गूजर सब ही आते, नाच-कूद सब चित्त उमगाते ।।३२।।
स्वामी तुमने प्रेम निभाया, ग्वाले का तुम मान बढ़ाया ।।३३।।
हाथ लगे ग्वाले का जब ही, स्वामी रथ चलता है तब ही ।।३४।।
मेरी है टूटी सी नैया, तुम बिन कोर्इ नहीं खिवैया ।।३५।।
मुझ पर स्वामी जरा कृपा कर, मैं हूँ प्रभू तुम्हारा चाकर ।।३६।।
तुमसे मैं अरु कछु नहीं चाहूँ, जन्म-जन्म तेरे दर्शन पाउँफ ।।३७।।
चालीसे को ‘चन्द्र’ बनावें, वीर प्रभू को शीश नवावें ।।३८।।
नित चालीसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन ।
खेय सुगंध अपार, वर्धमान के सामने ।।३९।।
होय कुबेर समान, जन्म दरिद्री होय जो ।
जिसके नहिं संतान, नाम वश जग में चले ।।४०।।
एक टिप्पणी भेजें